शोर कैसा ये उठा है मुझ में ?
क्या कोई मेरे सिवा है मुझ में ?
अंजुमन में भी कोई वहशत के
खौफ़ से चीख रहा है मुझ में
मैं जिसे ढूँढता हूँ हर दम वो
वक़्त तो बीत चुका है मुझ में
रूह बाक़ी कहां है अब तो बस
जिस्म ही जिस्म बचा है मुझ में
जाने क्या चाहिए है उसको वो
जाने क्या ढूँढ रहा है मुझ में
एक है कैद कई बरसों से
और इक शख़्स रिहा है मुझ में
As you were reading Shayari by Abhishek Bhadauria 'Abhi'
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