जिस्म को रौंद के उस वक़्त क़हर जाता है
इश्क़ जब सामने आंखों के मुकर जाता है
बस यही कह के मैंने दिल को तसल्ली दी है
जिसको जाना नहीं होता है ठहर जाता है
मेरे बदले हुए लहज़े से शिकायत कैसी
बाद इक उम्र के हर शख्स सुधर जाता है
अस्ल मसला तो मियां रात की बेदारी है
दिन तो दफ़्तर की ही बाहों में गुज़र जाता है
अब तो हर शख़्श में उम्मीद ए वफ़ा ढूंढता हुँ
जिसका अपना कोई होता है किधर जाता है
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