निगाह-ए-शौक़ को ये क़ुर्ब हासिल हो रहा है
तेरा चहरा मेरी आँखों के क़ाबिल हो रहा है
मुझे दरिया से निस्बत इस क़दर है पूछिए मत
जिसे मैं छू रहा हूँ वो भी साहिल हो रहा है
हद-ए-अफ़लाक़ से आगे नहीं रस्ता मुहय्या
मेरी परवाज़ में इक शक़्स हाइल हो रहा है
निकल कर वस्फ़ बहते हैं तेरी आँखों से ऐसे
तू जिसको देखता है वो भी क़ातिल हो रहा है
तुझे छूना ख़सारे के सिवा कुछ भी नहीं अब
तुझे छूने से पत्थर जो मेरा दिल हो रहा है
शरीक-ए-मर्ग तो हूँ पर क़ज़ा से बेख़बर हूँ
वो रस्ता हूँ मैं जो ख़ुद अपनी मंज़िल हो रहा है
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