हर सहर उम्मीद से ख़ुद को जगाता हूँ

  - Lalit Mohan Joshi

हर सहर उम्मीद से ख़ुद को जगाता हूँ
शाम मायूसी में फिर मैं डूब जाता हूँ

नौकरी ख़ातिर भटकता दर-ब-दर मैं तो
रोज़ खालीपन मग़र मैं साथ लाता हूँ

अब सभी नज़रें चुराते हैं यहाँ अपने
इसलिए भी ग़म नहीं अपना सुनाता हूँ

है लिबास-ए-काग़ज़ी ओढ़े मिरी क़िस्मत
दफ़्तरों की बारिशों से भीग जाता हूँ

इक परिंदा गाँव का वालिद से कहता है
आपके बेटे की हालत देख आता हूँ

गाँव में सबकी बसी थी जान मुझमें पर
शहर आकर ख़ुद को मैं बेजान पाता हूँ

दफ़्तरों से ठोकरों का राब्ता हर रोज़
मैं वहाँ से बस उदासी साथ लाता हूँ

नौकरी कर नौकरी का दर्द भी जाना
बोझ को ढोते हुए ख़ुद रोज़ पाता हूँ

देखकर बिखरे हुए अपने बदन को यार
आँख होती नम यहाँ फिर टूट जाता हूँ

  - Lalit Mohan Joshi

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