मुश्किलों में जो पल रहा होगा
वो ज़माने में फल रहा होगा
चोट पर चोट करने वाला वो
तो फ़क़त इक अज़ल रहा होगा
सह गया ज़ख़्म को यहाँ हँसकर
वो यक़ीनन कँवल रहा होगा
जो लड़ा प्यार के लिए शायद
वो बहुत ही कुशल रहा होगा
अपने माज़ी से जो उदासी है
अब तो उससे निकल रहा होगा
याद में अपने दोस्त की वो फिर
लिख नई इक ग़ज़ल रहा होगा
इल्म रखता है बहर का पूरा
सो लिखे पर अटल रहा होगा
वो जगाता है रात ख़ुद ऐसे
जैसे क़िस्मत बदल रहा होगा
आसमाँ देखने से क्या होगा
जब जहाॅं ही बदल रहा होगा
ऐब उस में नहीं है कुछ भी अब
यूँ ललित फिर अछल रहा होगा
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