बोझ जब से बढ़ गया है ज़िंदगी का
सिलसिला थम सा गया है मयकशी का
जो चुराकर शायरी ख़ुद की हैं कहते
वो बताएँ मुझको मानी शायरी का
देखकर तनख़्वाह मैं ये सोचता हूँ
भाव कितना रह गया है आदमी का
इश्क़ मुझको रास आता ही नहीं पर
मैं छिपाता हूँ हुनर आवारगी का
हम असीरों को मोहब्बत तीरगी से
हम नहीं चाहेंगे कमरा रौशनी का
रोटियों की पूजा करता हूँ मैं तब से
देखा है जब से वो मंज़र भुखमरी का
देखकर मुझको लगेगा तुमको ऐसा
होता है कोई नशा भी बेबसी का
डायरी मेरी कई करती असर है
ये उदासी इक असर है डायरी का
सादगी ने तेरी है जादू चलाया
भाव रहता है ज़ियादा सादगी का
काम आना है नहीं मतलब अगर तो
फिर बताओ मुझको मतलब दोस्ती का
तेज़ भागा वस्ल में तो फिर हुआ यूँ
हिज्र में धीमे चला कांटा घड़ी का
घाव भरते इश्क़ के देखे हैं मैंने
पर नहीं था जादू वो चारागरी का
मुझको सहरा मिल गया लैला को ढूँढों
क़ैस बनना है मुझे भी इस सदी का
काम मिलता है सभी को ज़िंदगी में
काम मुझको मिल चुका दीवानगी का
आपने जो समझा है अपनी समझ से
ज़ाविया ये तो नहीं था शायरी का
वो तवायफ़ मान के क़ाबिल है 'साहिर'
वो भला तो कर रही है ना किसी का
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