जब भी कभी असीरों की चीख़ें निकल पड़ीं
तो दफ़अतन शरीफ़ों की चीख़ें निकल पड़ीं
करबोबला में शौक़-ए-शहादत को देखकर
ख़ंजर की और तीरों की चीख़ें निकल पड़ीं
जब ये सुना के शाम का बाज़ार आ गया
ग़ैरत से सब असीरों की चीख़ें निकल पड़ीं
इतने थे ज़ख़्म दिल पे तेरी बे वफ़ाई के
दिल देखकर तबीबों की चीख़ें निकल पड़ीं
जब दोश पर सवेरों के रक्खा ग़म-ए-हयात
बे-साख़्ता सवेरों की चीख़ें निकल पड़ीं
हमने जब अपने ख़ून से रौशन किए चराग़
तो ज़ुल्म के सफ़ीरों की चीख़ें निकल पड़ीं
जब ख़ुश्क होंठ हमने रखे मौज-ए-बहर पर
शर्म-ओ-हया से मौजों की चीख़ें निकल पड़ीं
इक फूल के लबों पे तबस्सुम को देखकर
गुलशन में सारे ख़ारों की चीख़ें निकल पड़ीं
जब जब भी बे वफ़ाओं ने ज़िक्र-ए-वफ़ा किया
तो सुन के बा ज़मीरों की चीख़ें निकल पड़ीं
पाँव के छाले काँटों के सीनों पे जब रखे
तो दर्द-दुख से काँटों की चीख़ें निकल पड़ीं
जब शोर ये हुआ के शजर काट दीजिए
गुलशन में सब परिंदों की चीख़ें निकल पड़ीं
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