देख लो फिर से कुछ रहा तो नहीं ?
तुम में अंदर मैं और बचा तो नहीं ?
मेरे ज़िंदान में बसे हुए शख़्स
मुझ को बतला कि मैं बुरा तो नहीं ?
अपनी क़ामत से ऊँचा है शब्बीर
गिर गया कट के पर झुका तो नहीं ?
सोचता हूँ कि दहर-ए-फ़ानी में
तेरी फुरक़त मिरी सज़ा तो नहीं ?
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