बाज़ार हो कूचा हो हर इक गाम तवाइफ़
क्यों कर है हमेशा से ही बदनाम तवाइफ़
फिर शाह रहे कोई या मुफ़लिस हो कहीं का
करती है अगर इश्क़ तो बेदाम तवाइफ़
उनकी भी ख़ता देखे ज़माना जो हैं मासूम
रहती है सदा क्यों कोई बदनाम तवाइफ़
हर सुब्ह को आती है नज़र जैसे हो बेवा
दुल्हन सी जो सजती है हर इक शाम तवाइफ़
दामन में समेटे है जो दुनिया की हवस को
इक लफ़्ज़ मिला उसको है इनआम तवाइफ़
क्या-क्या न कराती है भला आग शिकम की
रख देती है काँटों पे गुल-अंदाम तवाइफ़
इन पर्दा-नशीनों का भरोसा ही नहीं है
'साहिल' सो तलाशेंगे सियह-फ़ाम तवाइफ़
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