हसरत-ए-दिल जो सँवारूँ भी तो घिन आती है
अब कोई हुस्न निहारूँ भी तो घिन आती है
अब तेरी ओर उठे आँखें ये है बाद की बात
अब तेरा नाम पुकारूँ भी तो घिन आती है
इश्क़ करता जो वफ़ा होता नहीं कोई मलाल
याद में पल जो गुज़ारूँ भी तो घिन आती है
इश्क़ की बाज़ी भला बेवफ़ा से क्यों जीतूँ
ख़ुद को ख़ुद से ही जो हारूँ भी तो घिन आती है
एक वो दौर था तन्हाई भी थी मेलों सी
ख़ुद को अब इससे गुज़ारूँ भी तो घिन आती है
दिल भी बच्चे की तरह रोज़ ही जाता है मचल
हसरतें इसकी जो मारूँ भी तो घिन आती है
मुझ पे इस इश्क़ के कुछ ऐसे भी हैं एहसानात
उस पे मैं जान को वारूँ भी तो घिन आती है
रौशनाई ने दुखाई है यूँ आँखें 'साहिल'
दुख को काग़ज़ पे उतारूँ भी तो घिन आती है
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