जिस्म को कहती हुई निकली है यूँ जाँ अलविदा
कह गया हो जैसे कोई दर से मेहमाँ अलविदा
सबको जाना है अकेले ख़ुल्द की जानिब है तय
बूद-ओ-हस्ती अस्सलाम ऐ साज़-ओ-सामाँ अलविदा
किस क़दर थी तिश्नगी अब क्या कहें हम यूँ समझ
चीख़ कर कहते गए हैं घर को रिंदाँ अलविदा
लौट आए इश्क़ के कूचे से ये ही है बहुत
ज़ुल्फ़-ए-बरहम शुक्रिया ऐ चाक-दामाँ अलविदा
रौशनी के जिस्म पर तारीकियों के वार से
कह गया शब भर सुबक कर इक चरागाँ अलविदा
अब ख़िज़ाँ के हाथ है अपना मुक़द्दर उम्र भर
ऐ चमन अल्लाह हाफ़िज़ ऐ बहाराँ अलविदा
करते हैं क्यों नश्तर-ए-ग़म को परेशाँ बख़्श दें
अब लहू ने कह दिया है ऐ रग-ए-जाँ अलविदा
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