The problem with me regarding Jaun Elia is not a problem of Scarcity of thought, rather it is a problem of abundance of feelings.

जौन पर इससे पहले भी एक ड्राफ्ट लिख चुका था। और रात हो गई और मैं सो गया। सुबह उठा और जाने क्यों फिर से ड्राफ्ट पढ़ने लगा। पूरा पढ़ते ही जाने क्यों जौन का एक शेर दिमाग़ में कीलें ठोकता आवाज़ करता चला आया और मेरी आंखों के जिस्म से आंसू खून की तरह बहने लगे जैसे शायद अजीब ओ गरीब बातों पर जौन रोने लगते होंगे। शेर था:



(I am half alive in between the lines I wrote, I am alive in the pages I wrote. But the people who always claimed to die for me are dead for me now, they didn’t do enough to rediscover me)


मैं रो रहा हूँ। जौन हँस रहे हैं। सिर्फ उन्हीं को पता है कि ये हँसने की बात है। मैंने जो लिक्खा था वो इंतिहाई छीछला मज़मून था। ये हम एलियाईओं की सबसे बड़ी गलती रही है। कहाँ हम “हा जौन हा जौन” करते रहते हैं और कहाँ जब हमसे जौन पर कुछ लिखने और जौन को समझाने की बात आती है तो हम अपने खयाल  का इज़हार नहीं कर पाते। और ये इज़हार न हो पाने की वजह खयालात का बहुतायत में होना है। आज जौन एलिया कि शायरी को जौन एलिया से ही खतरा है। हम सब एलियाईओं का जौन जौन की शाइरी की बाकी परतों को खुलने ही नहीं दे रहा। हमलोग बस कुछ सतहें खोलकर समझ रहे हैं कि वाह जौन क्या कमाल शाइर है पर जौन यहाँ खत्म नहीं होता। जौन की परतें जितनी गहराई तक जाती हैं, एक एक परत का अपना दायरा भी उतना ही बड़ा है 


मुझे यहाँ हीगल का Sublation का काॅन्सेप्ट ज़ेहन में आता है। हीगल के मुताबिक किसी भी शै में idea inherently मौजूद होता है और एक वक्त के बाद वो उस object में sublime हो जाता है, एक तौर से उसी में जज़्ब हो रहता है। ये Idea शै से दरयाफ़्त तो हो सकती है पर उसका पूरा मुआमला कहीं खो जाता है। जौन की शायरी या किसी शाइर की शाइरी में वो idea उसकी कैफियत होती है, चुंकि माअनी और लफ्ज़ तो जो कम ओ बेश है वो कलाम में मौजूद है। कैफियत पढ़ने वाले से untraceable एक दूरी पर जान पड़ती है। जौन के कलाम की खासियत ये भी है कि वो कैफियत एक तयशुदा जगह पर जौन के हर शेर में रक्खी हुई है। कभी लफ्ज़ों में, कभी लहजे में, कभी माअनी की गहराई में तो कभी किसी एक शेर के दो मिसरों के दरमियान की खाली जगह में। 


जौन के अशआर में न सिर्फ माअनी की नई सतहें दरयाफ़्त की गई हैं, बल्कि जो पूराने कदीम माअनी और लहजे की रिवायत है उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ा गया है। मैं कहीं जौन की शाइरी में Hegel की Dialectical approach देखता हूँ तो कहीं मुझे दो अशआर के दरमियान एक trickle down effect देखने को मिलता है। ज़ाहिर है कि जौन को उसके entirety में समझने के लिए जो prerequisites हैं वो कदीम और जदीद फलसफा, साइकालोजी, इसलामी तारीख और साथ साथ उर्दू शाइरी का बड़ा गहरा मुत्ताला भी हैं। और तो और खयाल के सफर को समझना बहुत ज़रूरी है। आज का आदमी post modernist है अपने खयालों के हिसाब से, उसे गालिब और मीर के इस्तियारे और खयाल तो बढ़ियाँ लग सकते हैं मगर अगर उसकी नफसियात की तहों की तर्जुमानी करनी है तो वो एक post modernist शाइर ही कर सकता है और खयाल और लहजे के एतबार से जौन को मैं एक post modernist मानता हूँ। अब ये एक अलग खयाल है कि शायद जौन एक hardcore post modernist के bracket में भी fit न बैठें, कहीं कहीं वो Marxist school of thought से compatible नज़र आते हैं, तो कहीं वो कदीम pre Socratic world के Thales और प्रोतागोरस की बातों में चहलकदमी करते दिखते हैं। Thought की परत की nomenclature में आप जौन को किसी एक खाने में डाल गए तो आप धोखा खा गए। 


ये तो रही जौन के school of thought पर बात। पर ये बात यहाँ खत्म तो हुई नहीं। जौन का philosophical discourse उसकी इश्क़िया शाइरी में दख़्ल देता दिखाई पड़ता है। सिर्फ पढ़ने लिखने वाला आदमी अगर प्यार करे तो ऐसे ही तो करेगा। उसे बात बात पर कभी एक तो कभी दूसरा खयाल अपने मोहब्बत के एहसास से मिलता जुलता मिलेगा।


ऐसे लोग अपनी आम ज़िन्दगी में practical और pragmatic नहीं रहते और इसका उन्हें एक गहरा मलाल होता है। जौन ने अपनी पहली किताब “शायद” के दीबाचे में अपनी शाइरी को एक नाकामयाब आदमी की शाइरी आखिर क्यों कहा है। आखिर एक theoretical आदमी के लिए कामयाबी और नाकामयाबी का क्या सबब होता होगा। मैं अपने नज़र से कहूं तो ऐसा है कि इस दुनिया में जो theory और practical सतह पर इंसानियत में इतना फ़र्क है जो किसी भी हस्सास आदमी को रूला सकती है। ईमानदारी किताबों की theory भर ही तो है। लोग एक दूसरे से अच्छी तरह पेश नहीं आते। सब कुछ एक chaos की सूरत में नज़र आता है। ऐसे में एक शख्स जो किताबों में सच लिक्खा है ऐसा ज़िन्दगी भर मानता आया हो वो तो मानो बौरा जाएगा। उसकी existential crisis की ये शुरुआत भर होगी। फिर वो कायनाती सतह पर अपनी हस्ती को देखने की कोशिश करेगा तो रो पड़ेगा। सब कुछ बेसबब और कुछ पता नहीं। आलम-ए-असबाब  का एक ढोंग जिसका आखिरश कोई हासिल नहीं है। तो ये जौन का एक बुनियादी ग़म है। 


यहाँ तक जौन की शाइरी पर जो बात की गई है उसे मैं सतही मानता हूँ। पर मसअला ये है कि post modernist poets के साथ दिक्कत भी तो यही है कि उनके काम की entirety कुछ नहीं निकलती। एक शेर में जौन कहता है ना... 



वो लोग मोटा मोटा काम नहीं करते कि उन्हें एक article में लिक्खा जाए। इसके लिए हमें जौन के अशआर से  दो  चार होना पड़ेगा और उसे बहुत सारी आंखों से देखने की ज़रूरत है, शाइर की आंखों से, फलसफी की आंखों से और सबसे अव्वल इंसान ही की आंखों से। और जौन की शाइरी खुद उनके school of thought का arena of application है। जौन एलिया की शाइरी पर मुकम्मल बात एक article, एक ब्लाग पोस्ट या एक मकाले में मुमकिन नहीं। पर यहाँ जौन के कुछ अशआर पर गौर करने की कोशिश की गई है। मसलन... 



गौरतलब है कि यहाँ एक खयाल को पलटकर कहा गया है। ये एक आम बात होती कि ज़ात दर ज़ात अजनबी रहकर हम अपने हमसफ़र को भूल जाते हैं। लेकिन यहाँ एक Anti-thesis की शक्ल में ये शेर दरअसल individuality पर है। दो लोग एक रिश्ते के सबब इस कदर साथ हो रहते हैं कि फिर उनकी अजनबी वाली पहचान जो एक दूसरे से मिलने से पहले थी, कहीं खो जाती है। ये शख्स जो मेरी बाँहों में सो रहा है, खुदको बिल्कुल महफूज़ समझते हुए, ये कभी मेरे होने से यक्सर बेखबर था। हम अजनबी भी थे कभी! ये खयाल जितना रूमानी है, उतना ही फलसफियाना भी। 



यहाँ ज़िन्दगी की सतही सूरत ए हाल पर तंज़ है। ये महज़ कहने की बातें हैं कि ज़िन्दगी में ग़म और खुशी को बराबर मानना चाहिए। हम लोग खुशी की तरफ़ और ग़मों से दूर भागना चाहते हैं। कौन है जो अपने लिए ग़म चुने, अगर आपको चार ग़म दे दिए जाएं, और कहा जाए कि एक चुनो तो आप कांपने लगेंगे, आपके पसीने छूट जाएंगे। सो हमलोग मसलेहत अपना लेते हैं। जो ग़म मिल जाए उसी पर रोते रहते हैं। एक आम सूरत ए हाल को इस ज़ाविए से देखना! भई कमाल! के ग़म पर रोते हो क्यूंकि ये ग़म तुम्हारा चुना हुआ नहीं तुम पर थोपा हुआ है। Democracy की इंतेहाँ देखिए।



ये तो आपको मालूम होगा कि सुकरात को जम्हूरियत यानि democracy पसंद नहीं थी। यहाँ जौन democracy पर एक ओर तंज़ कर रहे हैं और एक ओर इसे ही अंतिम विकल्प भी मान रहे हैं। आप पर ज़ुल्म हो रहा है, तो क्या कीजियेगा, जो सितम कर रहा है उसके प्रतिद्वंद्वी को जिताइए, और कुछ आपके हाथ नहीं। हाकिम-ए-वक्त को मसनद से उतारिये। 



इसके कई माने तसव्वुर में आते हैं। एक माना तो ये कि अपने आप से बात करते रहना बड़ा थकाने वाला काम है। सांस फुल जाती है। दूसरा ये कि एक हिदायत है सुनने वालों को। कि वो अपने आप ही शेर कहें, खुद से ही हमसुख़न रहें, चुंकि शाइर की सांस फुल रही है अब आगे शेर सुनाने में। wordplay का शानदार नमूना आपके सामने है। पर यहाँ बस wordplay होता तो ये सतही शाइरी होती। ये खयाल की सतह पर भी मेअयारी शाइरी है। 



इसका पहला मिसरा ही हासिल ए शेर है। दूसरा मिसरा महज़ मौज़ू का काम कर रहा है। अपनी महरूमियाँ कैसे छिपाई जाती है? एक बात! एक सरमाया! तो आपके नज़दीक क्या होगा आपको उसके होने तक की मालूमात नहीं है। आप कहेंगे, हम गरीब लोग हैं, हम इन चीज़ों के बिना भी जी लेते हैं। पर सच तो ये है कि उस शै का नामालूम होना बड़ा दुख देती है। भले आप पैदल ही चलें पर मोटर का न होना आपको एक अलग तरीके से कमतर बनाता है। आपकी गुरबत,सरमायादारी गुरबत नहीं, एक नफसियाती गुरबत है! 



आजतक कोई बात कही ही नहीं गई? क्या माअने हुए? कुछ समझे? यहाँ तो हर वक़्त बस दलीलें, सवाल और तंज़ का सिलसिला चलता रहता है। सिर्फ एक बात! जो बस एक बात के सिवा कुछ न हो, क्या ऐसी मासूमियत हम किसी बात में पाते हैं? हरगिज़ नहीं! यहाँ तो हर बात याँ तो पिछली बात का जवाब है या अगले बात का सवाल! आप बस बात नहीं करते। बतियाना अब कोई काम नहीं। बात करना अब बस किसी और काम को करने का इज़हार भर है। इसका ऐतराफ़ तो छोड़िये हम आप समझ लें तो बहुत है।



ये इंसानी तारीख़ का अलमिया है कि सोचने और समझने वाले लोग बस शौक़ के लिए ये काम करते हैं। सोचना कोई काम नहीं लगता इस दुनिया को। ये जो भी विचारक अभी बैठे गुफ़्तगू कर रहे हैं, कल अपने अपने काम पर जाएंगे। ये जो अभी plato तो कभी अरस्तू की बातें quote कर रहे हैं, कल खुद भी कुछ बोल नहीं पाएंगे, बस काम करेंगे, कमाई जो करनी है।



क्या तंज़ है अपनी नफ़सियात पर! तेग़-बाज़ी यानी तलवार बाज़ी का शौक़ आखिर क्यों पालता है कोई! वो किसी न किसी को मारेगा ही! आज नहीं तो कल! तो तेग़-बाज़ी आखिर कत्लेआम की तैयारी भर ही तो है। पर इंसान की इस दुनिया में तेग़-बाज़ी एक शौक़ और कत्ल ए आम एक गुनाह है! What an irony! हम लोग इतना डरते हैं कि डरते डरते औरों को दहलाने की तैयारी करते रहते हैं। 



एक लफ़्ज़ में कहें तो dejá vu! यानी एक ही बात पहले भी होने का एहसास! मैं नहीं जानता कि कोई और शाइरी है जिसने इस एहसास को शाइरी का मौज़ूं बनाया हो! 



आपके परिवार में आपका कोई खास मर जाए और मरते मरते एक दुख का ज़िक्र करे तो क्या आप उस बात को शाम को भूल सकते हैं? आप कहेंगे हरगिज़ नहीं! पर जौन कहेगा कि आप कतई याद न रक्ख सकेंगे। यही एक dark joke है हमारे मुआशरे का! कोई किसी का ग़म भी उम्र भर नहीं रखता! न ही किसी की बात!



इसमें पुर अम्न वाक्अया क्या है भाई? आदमी आदमी को भूल गया, ये तो दुख की बात है। पर आप जौन की मायूसी का सबब नहीं समझ रहे! जब इंसान को इंसान से निस्बत थी, तब क्या सब प्यार से रहते थे? क्या दुनिया ने  विश्वयुद्ध नहीं देखे? कत्लेआम नहीं देखे? क्या एक आदमी ने दूसरे को धोखा नहीं दिया? तो फिर तो ये आदमी का आदमी को भूलना अच्छी बात लगती है! 



आइये देखिए, हम सब गुनाहगार हैैं! 


हम सबों को गुमान होता है कि हम दिल के बुरे नहीं हैं। हम लाख दोषपूर्ण काम करें अपनी वकालत से ज़मीर की अदालत में बरी ज्ञान जाते हैं। पर ये वकील कतई झूठा है। ये झूठ बोलता नहीं पर सच छिपाता ज़रूर है। 



क्या ये आप कह सकते हैं? हम सबको अपना किया गया इश्क़ इल्हाम ही लगता है! पर क्या हम अपने आपको हवसी तसव्वुर कर पाते हैं! क्या हम ये कह पाते हैं कि महज़ हवस. थी शायद! नहीं! शायद तब ही वो जौन है! गांधी की आत्मकथा तसव्वुर में आती है। जौन की शाइरी में कहीं कहीं  experiments with truth जबरन किए गये हैं।



हार-जीत की ये binary किसने बनाईं? और क्यों मैं हारता जा रहा हूँ? मेरी हार मुझसे क्या छीन लेगी? ये भी एक अजीब कैफियत है।



आप मैं अपने हमसफ़र में हज़ार खूबियां चाहते हैं। और तो और उसकी खूबियों पर अपना हक़ मानते हैं। जौन कहता है कि मुझे मेरा मसीहा अच्छा किए बगैर पसंद है। zero expectations! वो होगा मसीहा! अपनी जगह! पर मुझे तो वो अपनी qualities से अलहदा पसंद है। वो रहे न रहे, मैं उसे पसंंद करता रहूँगा! 


और ये आखिरी शेर देखिए! मैं इस imagery पर वारी जाऊँ! खयाल के बिस्तर पर अपने महबूब के साथ लेटे रहना, कोई तकाज़ा किए बगैर। जैसे गालिब़ कहेंगे “दिल ढ़ूंढ़ता है फुरसत के रात दिन, बैठे रहे तसव्वुर ए जानां किए हुए!”



किसी फूल की खुशबू से रिश्ता भला बिना हवा के कायम हो सकता है क्या? मैं कहता हूँ बिल्कुल हो सकता है। जब फुल के रंग उसकी खुशबू की तर्जुमा करें! ये रूमानियत जौन के यहां ही मुमकिन है जहाँ एक भी प्यारी बात बिना एक गहरे फलसफियाना पैरहन में ही दिखती है। 



दुनिया में जाने कितने महान मुफ़क्किर, साइंसदाँ हुए हैं! हम दीए की रौशनी को जानते हैं बस, उसके तल के अंधेरे को कौन पूछे? उनके परिवार ने बहुत कुछ कुरबान किया है उनकी इस महानता के लिए! जौन ने इसी का ऐतराफ़ किया है। वो अपनी महबूबा से कहता है कि तुम्हें हमसे बेहतर कोई मिलना चाहिए था!  कोई और आदमी जो तुम्हें खुश रक्खे! मुझ जैसा खयाल ओ ख्वाब में गुम रहने वाले ने दुख के सिवा क्या दिया! 


सच बताऊँ तो मैं अपने जौन के कलाम पर thesis लिक्ख सकता हूँ। ज़ाहिर है कि मैं इस मामले में एहसास ज़्यादा और समझ कम रखता हूँ। इस ब्लॉग को यही रोका जाए ताकि मज़ीद पढ़ाई करी जाए और जौन को और समझ सकें!  काश मुझे जौन पर और लिखने का मौका मिले! जौन जुनून है न सिर्फ मेरा बल्कि हम सब एलियाईओं का!