(I am half alive in between the lines I wrote, I am alive in the pages I wrote. But the people who always claimed to die for me are dead for me now, they didn’t do enough to rediscover me)
मैं रो रहा हूँ। जौन हँस रहे हैं। सिर्फ उन्हीं को पता है कि ये हँसने की बात है। मैंने जो लिक्खा था वो इंतिहाई छीछला मज़मून था। ये हम एलियाईओं की सबसे बड़ी गलती रही है। कहाँ हम “हा जौन हा जौन” करते रहते हैं और कहाँ जब हमसे जौन पर कुछ लिखने और जौन को समझाने की बात आती है तो हम अपने खयाल का इज़हार नहीं कर पाते। और ये इज़हार न हो पाने की वजह खयालात का बहुतायत में होना है। आज जौन एलिया कि शायरी को जौन एलिया से ही खतरा है। हम सब एलियाईओं का जौन जौन की शाइरी की बाकी परतों को खुलने ही नहीं दे रहा। हमलोग बस कुछ सतहें खोलकर समझ रहे हैं कि वाह जौन क्या कमाल शाइर है पर जौन यहाँ खत्म नहीं होता। जौन की परतें जितनी गहराई तक जाती हैं, एक एक परत का अपना दायरा भी उतना ही बड़ा है
मुझे यहाँ हीगल का Sublation का काॅन्सेप्ट ज़ेहन में आता है। हीगल के मुताबिक किसी भी शै में idea inherently मौजूद होता है और एक वक्त के बाद वो उस object में sublime हो जाता है, एक तौर से उसी में जज़्ब हो रहता है। ये Idea शै से दरयाफ़्त तो हो सकती है पर उसका पूरा मुआमला कहीं खो जाता है। जौन की शायरी या किसी शाइर की शाइरी में वो idea उसकी कैफियत होती है, चुंकि माअनी और लफ्ज़ तो जो कम ओ बेश है वो कलाम में मौजूद है। कैफियत पढ़ने वाले से untraceable एक दूरी पर जान पड़ती है। जौन के कलाम की खासियत ये भी है कि वो कैफियत एक तयशुदा जगह पर जौन के हर शेर में रक्खी हुई है। कभी लफ्ज़ों में, कभी लहजे में, कभी माअनी की गहराई में तो कभी किसी एक शेर के दो मिसरों के दरमियान की खाली जगह में।
जौन के अशआर में न सिर्फ माअनी की नई सतहें दरयाफ़्त की गई हैं, बल्कि जो पूराने कदीम माअनी और लहजे की रिवायत है उसे एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ा गया है। मैं कहीं जौन की शाइरी में Hegel की Dialectical approach देखता हूँ तो कहीं मुझे दो अशआर के दरमियान एक trickle down effect देखने को मिलता है। ज़ाहिर है कि जौन को उसके entirety में समझने के लिए जो prerequisites हैं वो कदीम और जदीद फलसफा, साइकालोजी, इसलामी तारीख और साथ साथ उर्दू शाइरी का बड़ा गहरा मुत्ताला भी हैं। और तो और खयाल के सफर को समझना बहुत ज़रूरी है। आज का आदमी post modernist है अपने खयालों के हिसाब से, उसे गालिब और मीर के इस्तियारे और खयाल तो बढ़ियाँ लग सकते हैं मगर अगर उसकी नफसियात की तहों की तर्जुमानी करनी है तो वो एक post modernist शाइर ही कर सकता है और खयाल और लहजे के एतबार से जौन को मैं एक post modernist मानता हूँ। अब ये एक अलग खयाल है कि शायद जौन एक hardcore post modernist के bracket में भी fit न बैठें, कहीं कहीं वो Marxist school of thought से compatible नज़र आते हैं, तो कहीं वो कदीम pre Socratic world के Thales और प्रोतागोरस की बातों में चहलकदमी करते दिखते हैं। Thought की परत की nomenclature में आप जौन को किसी एक खाने में डाल गए तो आप धोखा खा गए।
ये तो रही जौन के school of thought पर बात। पर ये बात यहाँ खत्म तो हुई नहीं। जौन का philosophical discourse उसकी इश्क़िया शाइरी में दख़्ल देता दिखाई पड़ता है। सिर्फ पढ़ने लिखने वाला आदमी अगर प्यार करे तो ऐसे ही तो करेगा। उसे बात बात पर कभी एक तो कभी दूसरा खयाल अपने मोहब्बत के एहसास से मिलता जुलता मिलेगा।
ऐसे लोग अपनी आम ज़िन्दगी में practical और pragmatic नहीं रहते और इसका उन्हें एक गहरा मलाल होता है। जौन ने अपनी पहली किताब “शायद” के दीबाचे में अपनी शाइरी को एक नाकामयाब आदमी की शाइरी आखिर क्यों कहा है। आखिर एक theoretical आदमी के लिए कामयाबी और नाकामयाबी का क्या सबब होता होगा। मैं अपने नज़र से कहूं तो ऐसा है कि इस दुनिया में जो theory और practical सतह पर इंसानियत में इतना फ़र्क है जो किसी भी हस्सास आदमी को रूला सकती है। ईमानदारी किताबों की theory भर ही तो है। लोग एक दूसरे से अच्छी तरह पेश नहीं आते। सब कुछ एक chaos की सूरत में नज़र आता है। ऐसे में एक शख्स जो किताबों में सच लिक्खा है ऐसा ज़िन्दगी भर मानता आया हो वो तो मानो बौरा जाएगा। उसकी existential crisis की ये शुरुआत भर होगी। फिर वो कायनाती सतह पर अपनी हस्ती को देखने की कोशिश करेगा तो रो पड़ेगा। सब कुछ बेसबब और कुछ पता नहीं। आलम-ए-असबाब का एक ढोंग जिसका आखिरश कोई हासिल नहीं है। तो ये जौन का एक बुनियादी ग़म है।
यहाँ तक जौन की शाइरी पर जो बात की गई है उसे मैं सतही मानता हूँ। पर मसअला ये है कि post modernist poets के साथ दिक्कत भी तो यही है कि उनके काम की entirety कुछ नहीं निकलती। एक शेर में जौन कहता है ना...
Anas Khan
Joun Elia