कोई पूछे ख़ुदा के बंदों से
क्या मिला जंग लड़ के बच्चों से
हर्फ़-ए-आख़िर यही कहूॅंगा मैं
जीत सकते थे जंग लफ़्ज़ों से
मैं तो महव-ए-ख़याल-ए-यार हूॅं अब
मा'ज़रत चाहता हूॅं लोगों से
इतने लाहक़ हैं ख़ैर-ख़्वाह मिरे
दिल परेशाँ है ख़ैर-ख़्वाहों से
भारी-भरकम मैं लफ़्ज़ रखता हूॅं
जीतना है मुझे अदीबों से
सर पे यादों का इक असासा है
भर गए पाँव मेरे छालों से
इज़्ज़त-ए-नफ़्स ताक पर रख कर
मैं गुज़रता हूॅं उसकी गलियों से
दे के ज़ख़्म-ए-दिल-ओ-नमक यारों
हाल वो पूछता है अपनों से
हाल-ए-दिल आठ 'जून' से अब तक
मुब्तला है शराब-गाहों से
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