एक बख़ियागर कहे कैसा ज़माना आ गया
कोई ठग अहद-ए-रिया में आशियाना खा गया
रौशनी को अब्र ने जैसे मिटाया उस तरह
बोलकर कलयुग किसी का कोई तो हक़ खा गया
देखके उस हुस्न को हैरान तो मैं भी हुआ
राह चलने वाले को भी ख़ूब लगता भा गया
दाल रोटी खाने वाले ने कहाँ लूटा उन्हें
इक अकेला वो कई घर-बार कैसे खा गया
फ़र्क़ ऐसे लड़कियों में और लड़कों में हुआ
मान ले हर बात आशिक़ क्या ज़माना आ गया
उस महल पर इत्तिफ़ाक़न ही सियासत हो गई
आइना-ख़ाना बड़ा उस शहर का फिर छा गया
जब तरक़्क़ी की हुईं बातें मनोहर दिल से ही
सोचकर कुछ गाँव से मैं शहर को ही आ गया
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