कल 'मीर' ने क्या किया की मय के लिए बेताबी
आख़िर को गिरो रखा सज्जादा-ए-मेहराबी
जागा है कहीं वो भी शब मुर्तकिब-ए-मय हो
ये बात सुझाती है उन आँखों की बे-ख़्वाबी
क्या शहर में गुंजाइश मुझ बे-सर-ओ-पा को हो
अब बढ़ गए हैं मेरे अस्बाब-ए-कम-असबाबी
दिन-रात मिरी छाती जलती है मोहब्बत में
क्या और न थी जागा ये आग जो याँ दाबी
सो मलक फिरा लेकिन पाई न वफ़ा इक जा
जी खा गई है मेरा इस जिंस की नायाबी
ख़ूँ बस्ता न क्यूँ पलकें हर लहज़ा रहीं मेरी
जाते नहीं आँखों से लब-ए-यार के उन्नाबी
जंगल ही हरे तन्हा रोने से नहीं मेरे
कोहों की कमर तक भी जा पहुँची है सैराबी
थे माह-विशाँ कल जो उन कोठों पे जल्वे में
है ख़ाक से आज उन की हर सहन में महताबी
कल 'मीर' जो याँ आया तौर इस का बहुत भाया
वो ख़ुश्क-लबी तिस पर जामा गले में आबी
Read Full