लाख समझाया पर सुनी ही नहीं
ज़िद भी ऐसी कि टूटती ही नहीं
ज़ख़्म इतने मिले हैं दुनिया से
अब कोई आरज़ू बची ही नहीं
क्या बताऊॅं मैं ख़ौफ़ का आलम
ज़िंदगी ज़िंदगी रही ही नहीं
लाख कोशिश की है मगर फिर भी
आदत-ए-बद कि छूटती ही नहीं
वक़्त बरहम हुआ है जब से मेरा
क्यों रफ़ाक़त कहीं मिली ही नहीं
मसअला दिल का बढ़ गया मेरा
जब से वो मेरी ज़िंदगी ही नहीं
ख़्वाब में जब से वो दिखा परवेज़
हालत-ए-दिल में सादगी ही नहीं
As you were reading Shayari by Parvez Shaikh
our suggestion based on Parvez Shaikh
As you were reading undefined Shayari