मुझको आग़ाज-ए-मुहब्बत का सफ़र याद नहीं
कैसा दिखता था शब-ए-वस्ल क़मर याद नहीं
मुझको अंजाम-ए-मुहब्बत से डराते हो सनम
इतना घूमा है मुसाफ़िर कि नगर याद नहीं
आप कहते हैं तो ये हुक़्म भी तस्लीम मगर
शब-ए-फुर्कत में भी आई थी सहर याद नहीं
मुझको एहसास तो ये है कोई है साथ मिरे
कौन चलता है मेरे साथ मगर याद नहीं
मैं तो मसरूफ़-ए-ग़ज़ल रहता हूँ मैं क्या ही कहूँ
कैसे हो जाता है शेरों में असर याद नहीं
दिल की बस्ती में मुसलसल कोई बसता ही गया
एक दो की तो मुझे ख़ुद भी ख़बर याद नहीं
तुम तो कहते थे कि मर के भी न भूलूँगा तुम्हें
तुमको 'राकेश' वो बे-कैफ़ नज़र याद नहीं
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