कभी तो ख़ुद में ही ढलने को जंग करता हूँ
कभी मैं ख़ुद को बदलने को जंग करता हूँ
उलझ गया हूँ ख़्यालों से इस क़दर अब तो
तमाम उम्र निकलने को जंग करता हूँ
दिल-ओ-दिमाग़ की आपस में जब नहीं बनती
तो इनके साथ में चलने को जंग करता हूँ
ग़मों की भीड़ ने घेरा है चारों जानिब से
गिरा-पड़ा हूँ सँभलने को जंग करता हूँ
मेरे ज़मीर ने पैरों को बाँध रक्खा है
वफ़ा के साथ में चलने को जंग करता हूँ
मेरा ग़ुरूर मेरे रास्ते में जब आया
तो उसकी हस्ती कुचलने को जंग करता हूँ
तुम्हारी याद खुरचने लगी हैं ज़ख़्मों को
अब इसकी ज़द से निकलने को जंग करता हूँ
Read Full