बहरे सारे हो गए सुनता न कोई पीर को
ख़ुद बढ़ाना सीख लो अब अपनी घटती चीर को
बेचना ईमान बेहद सहल है उनके लिए
बेचने जो याँ लगे हैं बोतलों में नीर को
माँ का चेहरा आँखों में आ जाता है वर्ना मैं भी
तोड़ कर आता चला इस ज़ीस्त की ज़ंजीर को
आजकल उनसे मिरा मिलना तो हो पाता नहीं
पर गुज़ारा करता हूँ मैं चूम कर तस्वीर को
भूखा हूँ सो ख़्वाब रोटी के ही आएँगे यहाँ
क्यूँ परेशाँ करते हो तुम पूछ कर ता'बीर को
पल में तोला पल में माशा लोग जो होते यहाँ
पढ़ना मुश्किल है बहुत उनकी मियाँ तासीर को
दिख रही है सारी मछली लोगों को लेकिन मुझे
भेदना है आँख को बस ये बताया तीर को
जो बनाते हैं नहीं क़िस्मत को मेहनत का ग़ुलाम
अंत में वो लोग देते दोष फिर तक़दीर को
हैं क़िताबें याँ हज़ारों वाचने के वास्ते
पर ग़ज़ल कहने को पढ़ता हूँ मैं ग़ालिब, मीर को
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