इक तेरी ख़ामुशी से डरता हूँ
वरना मैं कब किसी से डरता हूँ
पंखा आवाज़ देने लगता है
जब भी मैं ज़िन्दगी से डरता हूँ
अब तो बर्बाद कर लिया ख़ुद को
अब नहीं शायरी से डरता हूँ
था जो फ़रहाद, मेरा अपना था
इसलिए आशिक़ी से डरता हूँ
वो किसी और को न हाँ कह दे
उसकी सादा-दिली से डरता हूँ
बाग़ से फूल तोड़ लूँ लेकिन
तितलियों की कमी से डरता हूँ
काट डाले न शाह हाथ मेरे
अपनी कारीगरी से डरता हूँ
तूने छोड़ा तो बन गया क़ाबिल
अब तेरी वापसी से डरता हूँ
जानता हूँ तुम्हारे बाप को भी
मैं मगर एक ही से डरता हूँ
सुन के हैरत हुई कि मुझ से ख़ुदा
कहता है आदमी से डरता हूँ
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