हमारी ज़िंदगी में क्या नया है
वही होता है जो, वो हो रहा है
मैं अक्सर बैठे-बैठे सोचता हूॅं
सज़ा-ए-मौत क्या सच-मुच सज़ा है?
ज़रा दुनिया का अपनी हाल देखो
ज़रा सोचो कोई सच-मुच ख़ुदा है?
बड़ा तो पैदा होने का ही दुख है
धरम तो छोटा मोटा मसअला है
किसी के वास्ते पत्थर तिरे हैं
किसी के साथ में मूसा चला है
सुकूँ दरकार है जिस शख़्स को भी
यक़ीं मानो सुसाइड रास्ता है
मैं ज़िम्मेदारियों में फँस गया हूॅं
मुझे मरने का मौक़ा कब मिला है?
तुम्हारी आँख में काजल नहीं है
तुम्हारी आँख में ख़ंजर लगा है
न अपनी शायरी है 'जौन' जैसी
न अपना इश्क़ कोई 'फारिहा' है
मैं जिसके वास्ते ग़ज़लें लिखूँ हूॅं
वो मेरा नाम तक नईं जानता है
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