तावीज़ फेल हो गए सब प्यार व्यार के
जब से रक़ीब आ गए हिस्से में यार के
सोता हूँ जब भी रात को मैं दिन गुज़ार के
होते हैं मुझ में युद्ध कई आर पार के
मुश्किल में वो भी काम मेरे आ नहीं सका
नखरे उठा रहा था मैं जिस ग़म-गुसार के
दो चार दिन से मौत का इल्हाम हो रहा
दो चार दिन मैं जी रहा वो भी उधार के
ऐसा नहीं हो तू कहीं पछताए उम्र भर
मैं थक चुका हूँ यार तुझे अब पुकार के
साहिल भी दोस्त दूर है कश्ती भी नातवाँ
मुझ को तो लौटना भी है तुझ को उतार के
फिर उस के बाद हो गया मैं तीरगी में गर्क़
दो चार दिन तो मैं ने भी देखे थे प्यार के
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