" महफ़िल " - Sahil Verma

" महफ़िल "

क्यों न शाइरों की महफ़िल सजाई जाए
अपनी-अपनी दास्ताने-ग़म सुनाई जाए

जो बात हमने किसी ख़ास से ना कही
क्यों न वो इस महफ़िल में बताई जाए

महबूबा से मोहब्बत ना जता सके यारों
तो इस महफ़िल में मोहब्बत जताई जाए

पैसे-वैसे तो जैसे-तैसे कमा ही लेंगे हम
क्यों न महफ़िल में इज़्ज़त कमाई जाए

हम लोग दर्द से भरी बोतलें हैं भाईयों
सबकी तरफ़ से एक एक पिलाई जाए

- Sahil Verma
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