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Gulshan Shayari

Here is a curated collection of Gulshan shayari in Hindi. You can download HD images of all the Gulshan shayari on this page. These Gulshan Shayari images can also be used as Instagram posts and whatsapp statuses. Start reading now and enjoy.

इतना न अपने जामे से बाहर निकल के चल
दुनिया है चल-चलाव का रस्ता संभल के चल

औरों के बल पे बल न कर इतना न चल निकल
बल है तो बल के बल पे तू कुछ अपने बल के चल

इंसां को कल का पुतला बनाया है उस ने आप
और आप ही वो कहता है पुतले को कल के चल

फिर आंखें भी तो दीं हैं कि रख देख कर क़दम
कहता है कौन तुझ को न चल चल संभल के चल

क्या चल सकेगा हम से कि पहचानते हैं हम
तू लाख अपनी चाल को ज़ालिम बदल के चल

है शमा सर के बल जो मोहब्बत में गर्म हो
परवाना अपने दिल से ये कहता है जल के चल

बुलबुल के होश निकहत-ए-गुल की तरह उड़ा
गुलशन में मेरे साथ ज़रा इत्र मल के चल

गर क़स्द सू-ए-दिल है तिरा ऐ निगाह-ए-यार
दो-चार तीर पैक से आगे अजल के चल

जो इम्तिहान-ए-तबाह करे अपना ऐ 'ज़फ़र'
तो कह दो उस को तौर पे तू इस ग़ज़ल के चल
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Bahadur Shah Zafar
जाने किस की तलाश उन की आँखों में थी
आरज़ू के मुसाफ़िर
भटकते रहे
जितना भी वो चले
इतने ही बिछ गए
राह में फ़ासले
ख़्वाब मंज़िल थे
और मंज़िलें ख़्वाब थीं
रास्तों से निकलते रहे रास्ते
जाने किस वास्ते
आरज़ू के मुसाफ़िर भटकते रहे
जिन पे सब चलते हैं
ऐसे सब रास्ते छोड़ के
एक अंजान पगडंडी की उँगली थामे हुए
इक सितारे से
उम्मीद बाँधे हुए सम्त की
हर गुमाँ को यक़ीं मान के
अपने दिल से
कोई धोका खाते हुए जान के
सहरा सहरा
समुंदर को वो ढूँडते
कुछ सराबों की जानिब
रहे गामज़न
यूँ नहीं था
कि उन को ख़बर ही न थी
ये समुंदर नहीं
लेकिन उन को कहीं
शायद एहसास था
ये फ़रेब
उन को महव-ए-सफ़र रक्खेगा
ये सबब था
कि था और कोई सबब
जो लिए उन को फिरता रहा
मंज़िलों मंज़िलों
रास्ते रास्ते
जाने किस वास्ते
आरज़ू के मुसाफ़िर भटकते रहे
अक्सर ऐसा हुआ
शहर-दर-शहर
और बस्ती बस्ती
किसी भी दरीचे में
कोई चराग़-ए-मोहब्बत न था
बे-रुख़ी से भरी
सारी गलियों में
सारे मकानों के
दरवाज़े यूँ बंद थे
जैसे इक सर्द
ख़ामोश लहजे में
वो कह रहे हों
मुरव्वत का और मेहरबानी का मस्कन
कहीं और होगा
यहाँ तो नहीं है
यही एक मंज़र समेटे थे
शहरों के पथरीले सब रास्ते
जाने किस वास्ते
आरज़ू के मुसाफ़िर भटकते रहे
और कभी यूँ हुआ
आरज़ू के मुसाफ़िर थे
जलती सुलगती हुई धूप में
कुछ दरख़्तों ने साए बिछाए मगर
उन को ऐसा लगा
साए में जो सुकून
और आराम है
मंज़िलों तक पहुँचने न देगा उन्हें
और यूँ भी हुआ
महकी कलियों ने ख़ुशबू के पैग़ाम भेजे उन्हें
उन को ऐसा लगा
चंद कलियों पे कैसे क़नाअत करें
उन को तो ढूँढना है
वो गुलशन कि जिस को
किसी ने अभी तक है देखा नहीं
जाने क्यूँ था उन्हें इस का पूरा यक़ीं
देर हो या सवेर उन को लेकिन कहीं
ऐसे गुलशन के मिल जाएँगे रास्ते
जाने किस वास्ते
आरज़ू के मुसाफ़िर भटकते रहे
धूप ढलने लगी
बस ज़रा देर में रात हो जाएगी
आरज़ू के मुसाफ़िर जो हैं
उन के क़दमों तले
जो भी इक राह है
वो भी शायद अँधेरे में खो जाएगी
आरज़ू के मुसाफ़िर भी
अपने थके-हारे बे-जान पैरों पे
कुछ देर तक लड़खड़ाएँगे
और गिर के सो जाएँगे
सिर्फ़ सन्नाटा सोचेगा ये रात भर
मंज़िलें तो उन्हें जाने कितनी मिलीं
ये मगर
मंज़िलों को समझते रहे जाने क्यूँ रास्ते
जाने किस वास्ते
आरज़ू के मुसाफ़िर भटकते रहे
और फिर इक सवेरे की उजली किरन
तीरगी चीर के
जगमगा देगी
जब अन-गिनत रहगुज़ारों पे बिखरे हुए
उन के नक़्श-ए-क़दम
आफ़ियत-गाहों में रहने वाले
ये हैरत से मजबूर हो के कहेंगे
ये नक़्श-ए-क़दम सिर्फ़ नक़्श-ए-क़दम ही नहीं
ये तो दरयाफ़्त हैं
ये तो ईजाद हैं
ये तो अफ़्कार हैं
ये तो अशआर हैं
ये कोई रक़्स हैं
ये कोई राग हैं
इन से ही तो हैं आरास्ता
सारी तहज़ीब ओ तारीख़ के
वक़्त के
ज़िंदगी के सभी रास्ते
वो मुसाफ़िर मगर
जानते-बूझते भी रहे बे-ख़बर
जिस को छू लें क़दम
वो तो बस राह थी
उन की मंज़िल दिगर थी
अलग चाह थी
जो नहीं मिल सके उस की थी आरज़ू
जो नहीं है कहीं उस की थी जुस्तुजू
शायद इस वास्ते
आरज़ू के मुसाफ़िर भटकते रहे
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Javed Akhtar
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