किसी को याद में रखना किसी की याद में आना
ये भी है ज़िन्दगी का सच हर इक रूदाद में आना
ख़िज़ाँ का यूँ चले जाना बहार-ए-नौ के आने पर
ये बिल-आख़िर अलामत है चमन का माद में आना
वही शाही वही दौराँ ज़माने में चले कब तक
कि सुल्तानी ज़रूरी तो नहीं शहज़ाद में आना
जहाँ तुमको बनाना है महल अपना बनाओ तुम
मगर लाज़िम है संग-ओ-ख़िश्त का बुनियाद में आना
सुनो बातिल मेरा ईमाँ फ़क़त है कलमा-ए-तौहीद
डरा सकता नहीं मुझको तिरा तादाद में आना
सभी को है पड़ी अपनी कहाँ होता किसी से भी
यहाँ अब तो ज़रूरतमंद के इमदाद में आना
कहाँ लिक्खी ग़ज़ल मैंने कि लिक्खी ज़िंदगी अपनी
कभी सोचा कहाँ था मैं तुम्हारी दाद में आना
मिलेगा क्या ज़माने को ख़सारे के सिवा हैदर
गवारा क्यों करे कोई चमन बर्बाद में आना
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