कहीं से तो आए मुग़ाँ अब
दिलो-जाँ हुए हैं फुलाँ अब
न बस्ती न सहरा यहाँ अब
मैं जाऊं तो जाऊं कहाँ अब
निकलते ही दैरो-हरम से
हैं लड़ते धरम के मुग़ाँ अब
दिलों से निकल के सड़क पर
हैं दीनो-धरम के निशाँ अब
रहे जो न बस्ती में इंसाँ
सो हर सू है जंगल वहाँ अब
बनाता हूँ सहरा को बस्ती
सिवा जो है वहमो-गुमाँ अब
लगाई है कुर्सी ने जो आग
रहा जल ये हिन्दोस्ताँ अब
है मतलब जहाँ में सिवा जो
वफ़ा है न ही दिल-सिताँ अब
मैं बस्ती-ओ-सहरा भी देखा
कहीं भी न अमनो-अमाँ अब
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