तुम्हारे लफ़्ज़ ही सारे थके-थके से हैं
सभी जवाब तुम्हारे नपे-तुले से हैं
किसी का टूटना , गिर जाना , गिर के उठना फिर
ये वाक़ियात भी कुछ कुछ सुने-सुने से हैं
ज़रा सा वक़्त लगेगा मुझे सँभलने में
अभी तो ज़ख़्म ही मेरे नए-नए से हैं
'अदम' को सुनना यहाँ सबके बस की बात नहीं
'अदम' के शे'र ही सारे खरे-खरे से हैं
यकीन मानो बड़ी तेज़ दौड़ते हैं वो
जो लोग पर्दों के पीछे छुपे-छुपे से हैं
वो आज लटका मिला है वहीं पे पंखे से
जहाँ वो कह रहा था कल बड़े मज़े से हैं
बड़ा ग़रूर था इक वक़्त इन दरख़्तों को
जो आज वक़्त के मारे झुके-झुके से हैं
As you were reading Shayari by Aqib khan
our suggestion based on Aqib khan
As you were reading undefined Shayari