ज़ेहन से मुश्किल से बाहर खींचा है
हम ने इस कुव्वत से मंज़र खींचा है
तीरगी भी और फिर तन्हाई भी
हमने क्या क्या अपने अंदर खींचा है
थी तलब ताबीर की सो इस लिये
ख़्वाब को आँखों से बाहर खींचा है
खिंचना था कब हमे फिर भी मगर
ज़ात से हस्ती को अक्सर खींचा है
मरना तय है मेरा अब इस घाव से
उस ने जिस ताक़त से नश्तर खींचा है
हमसे कब मिस्मार रिश्ता खिचना था
फिर भी हम दोनों ने मिलकर खींचा है
ख़्वाब आने की ग़रज़ से बे-तरह
नींद ने यक-दम ही बिस्तर खींचा है
गुम थे अपनी बेखु़दी में कैफ़ तुम
ख़ुद ही तुमने ख़ुद को बाहर खींचा है
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