मुझे कुछ नहीं तुम समझने लगे हो
गुज़रने ये कैसे भरम से लगे हो
बिछाते हो काँटें मेरे रास्तों में
ग़लत चाल तुम फिर से चलने लगे हो
तुम्हें लग रहा है कि मरने लगा हूँ
सो तुम अपनी मर्ज़ी चलाने लगे हो
मुझे बात पर तो हँसी आ रही है
दिखाने मुझे आँख क्यों ये लगे हो
हुआ जब अँधेरा सभी ओर से तो
बुझाने ये क्यों तुम मशाले लगे हो
समंदर को पीने का रखता हुनर मैं
मुझे तुम तो दरिया बताने लगे हो
मैं कहता रहा हूँ मेरे दोस्त तुमसे
ग़लत तुम बहुत ही बहकने लगे हो
तुम्हारी ये बातें दुखाती है दिल को
मुझे तुम फ़क़त अब ग़लत से लगे हो
As you were reading Shayari by Lalit Mohan Joshi
our suggestion based on Lalit Mohan Joshi
As you were reading undefined Shayari