मआल-ए-क़िस्सा-ए-दिल-ए-हज़ी ख़राब देख कर - Faiz Ahmad

मआल-ए-क़िस्सा-ए-दिल-ए-हज़ी ख़राब देख कर
मैं डर के जाग उठा तुम्हारा रात ख़्वाब देख कर

मुझे लगा था आ के सीने से लगाएगी मुझे
मगर चली गई वो हाल-ए-दिल ख़राब देख कर

अभी तड़प रहा था दिल नमाज़ में दुआ के वक़्त
और अब ज़बाँ मचल रही है फिर शराब देख कर

क़रार-ए-जाँ ज़रा से वक़्त को सही पर आया कर
मज़ीद ख़ुश हैं मेरी आँखें तेरा ख़्वाब देख कर

ख़ुदा से माँगे जा रहा हूँ मैं ये जानते हुए
मना करेगा वो मिरे अमल ख़राब देख कर

मुझ ऐसे ख़ुम-ब-दस्त बादाकश को हाथों में लिए
बड़ा ही मुस्कुराई आज वो गुलाब देख कर

लो कर दिया न गर्क़ उसकी आँखों ने तुम्हें भी 'फ़ैज़'
हम आपसे न कहते थे ज़रा जनाब देख कर

- Faiz Ahmad
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