ग़ुलाम तुम भी थे यारों ग़ुलाम हम भी थे
नहा के ख़ून में आयी थी फ़स्ले-आज़ादी
मज़ा तो तब था कि जब मिलकर
इलाज-ए-जां करते
ख़ुद अपने हाथ से
तामीर-ए-गुलसितां करते
हमारे दर्द में तुम
और तुम्हारे दर्द में हम शरीक़ होते
तो जश्न-ए-आशियां करते
तुम आओ गुलशन-ए-लाहौर से चमन बर्दोश
हम आएं सुब्ह-ए-बनारस की रौशनी लेकर
हिमालय की हवाओं की ताज़गी लेकर
और उसके बाद ये पूछें
कौन दुश्मन है ?
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