उम्र लग गई है इक ये मक़ाम पाने में
ख़ुद को याद रखने में उस को भूल जाने में
ज़िक्र आ गया उसका फिर किसी फ़साने में
रो पड़ा फफक के मैं बात वो बताने में
दिल ही ये नहीं माना ग़ैर के लिए वरना
लोग तो बहुत आए इस ग़रीब-ख़ाने में
जान थी हमारी जो और ले गया कोई
सोचते रहे बस हम इश्क़ को जताने में
क्या ख़ता हुई मुझसे कुछ पता नहीं है क्यूँ
हो गया मैं दूर उस से उसको पास लाने में
छीन ले गए उसको हाथों से मिरे सब लोग
देखते रहे हम सब आबरू बचाने में
मर्ज़ी-ए-क़ज़ा तो देख पाई क्या सज़ा तो देख
ज़िन्दगी गँवाई है ज़िन्दगी बनाने में
ऐसा क्या लिखा उसने नज़्म-ए-इश्क़ में अपनी
आँखें जो भर आई वो नज़्म गुनगुनाने में
पूछते हो मुझसे तुम क्यूँ सबब उदासी का
मिलता है मज़ा तुमको क्या मुझे रुलाने में
हाल-ए-ज़िन्दगी मेरा है बहुत अजब ही दोस्त
सब लुटा दिया मैंने इश्क़ आज़माने में
छूटते गए मुझसे इस तरह सभी अपने
रेत छूटती है ज्यों मुट्ठी में दबाने में
वो छुड़ा के मुझसे हाथ जो चला गया तब से
रोज़-ओ-शब गुज़रते हैं बस किताब-ख़ाने में
इश्क़ को छुपाकर भी तुम छुपा नहीं सकते
बातें होती हैं जाहिर बातें सब छुपाने में
तुम वफ़ा की ख़ातिर जो हो गए तबाह इसकी
है नहीं कोई क़ीमत आज के ज़माने में
शख़्सियत की मेरी बस है 'अनुज' कहानी ये
मिट गए मिरे दुश्मन सब मुझे मिटाने में
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