गुज़रे तेरे करम से मसाइल कभी कभी - Aves Sayyad

गुज़रे तेरे करम से मसाइल कभी कभी
कुछ में तो तेरा नाम था शामिल कभी कभी

ये इल्तिजा है कर न तू आसान राह-ए-इश्क़
मुश्किल से मुझ पे आई है मुश्किल कभी कभी

हर बात की वज़ह हो ज़रूरी नहीं है दोस्त
ऐसे ही बैठ जाता है ये दिल कभी कभी

ख़ुद को तू अपने ज़ब्त से बाहर निकाल ले
दरिया भी खोल लेता है साहिल कभी कभी

कुछ भी नहीं है पास तो खोने का डर नहीं
फिर क्यों उँडेले मैंने हलाहिल कभी कभी

उसने भी ग़ैर जान के पत्थर उठा लिए
कालिख बना नक़ाब के क़ाबिल कभी कभी

दिल चाहता है काट दूँ उसकी ज़ुबान को
देता है ऐसे ऐसे दलाइल कभी कभी

मुझ को तो मिल सका न मेरे जैसा कोई और
बैठा है आइना भी मुक़ाबिल कभी कभी

सूरज को देखने का हुनर आप में नहीं
बीनाई छीन लेती है मंज़िल कभी कभी

'सय्यद' दुआएँ बारिशें बन कर बरस रहीं
बाग़-ए-जिनाँ से आया है बिस्मिल कभी कभी

- Aves Sayyad
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