ताज़गी गुल में न कलियों में अदा बाक़ी है
बाग़बाँ तू ही बता बाग़ में क्या बाक़ी है
ज़ालिमों ने अभी देखी है फ़क़त महर-ए-ख़ुदा
उनसे कह दो कि अभी क़हर-ए-ख़ुदा बाक़ी है
सुबह तक दूर रहे शब के अँधेरों से कहो
अब भी इन बुझते चराग़ों में ज़िया बाक़ी है
बस अभी तक तो मरोड़ी है ज़बाँ मुंसिफ़ ने
हक़-बयानी की अभी और सज़ा बाक़ी है
बाग़ के बाग़ उजाड़े हैं ख़िज़ाओं ने मगर
एक वो फूल जो आँखों में खिला बाक़ी है
मुझको एहसास हथेली सा नरम है लगता
मेरी आँखों में अभी रंग-ए-हिना बाक़ी है
उनको पाने की है उम्मीद वो झूठी ही सही
कुछ तो हाथों की लकीरों में लिखा बाक़ी है
आ गए दूर बहुत ऐसी जगह पर कि 'बशर'
हैं अज़ानें न हरम सिर्फ़ ख़ला बाक़ी है
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