मैंने भी नज़रें झुका लीं उसने भी पर्दा किया
फिर भी जाने क्यूँ ज़माने ने हमें रुसवा किया
आते जाते मेरा उनसे हो गया जब सामना
दिल बहुत ज़ोरों से धड़का हाथ से थामा किया
अक़्ल ने रोका बहुत लेकिन ये दिल माना नहीं
हमने फिर उनसे किसी इतवार का वादा किया
ग़ैर से हो क्या गिला अपनों ने आँखें फेर लीं
सोचते ही रह गए ऐसा भी हमने क्या किया
चलते कितनी दूर तक मंदिर में माथा टेकने
घर से मस्जिद पास थी हमने वहीं सजदा किया
मज़हब इक ऐसा भी हो जो आदमियत ही सिखाए
पढ़ के पंडित मौलवी मुल्ला बने तो क्या किया
जो भी करना था सबा करते रहे हम बे-झिझक
नुक्ता-चीं कहते रहे ऐसा किया वैसा किया
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