ख़ुश्क होंठों पर सुलगती प्यास का मंज़र न देख
ज़ुल्म के इस शहर से बच कर निकल मुड़कर न देख
अपनी आँखें बंद कर ले है यही इक रास्ता
टूटती साँसें दरीदा जिस्म जलते घर न देख
अब तो मुझको दोस्तों पर दुश्मनों का है गुमाँ
अब मुहब्बत की नज़र से भी वफ़ा-परवर न देख
ऐ समंदर के मुसाफ़िर तोड़ मौजों का ग़ुरूर
होश अपने रख बजा तूफ़ान के तेवर न देख
फूँक देती है हसद की आग हासिद का वजूद
गर कोई हो तुझसे बेहतर तो उसे जल कर न देख
ऐ सबा उस रहबर-ए-क़ामिल के रुख़ पर रख नज़र
नूर का एक सिलसिला है उससे तू बाहर न देख
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