हर साँस में तुम ही बसे तुम बे-सबब आदत मिरी
तुम से अलग कुछ भी नहीं तुम ही तो हो चाहत मिरी
मैं सो गया ये सोच कर आओगी तुम फिर ख़्वाब में
बस नींद फिर मेरी उड़ी यूॅं रह गई हसरत मिरी
तुम कौन हो कैसी हो तुम इक रात पूछा चाँद ने
अब गर उसे आईना दूँ आएगी फिर शामत मिरी
चेहरा न देखो तुम मेरा सब नूर अल्फ़ाज़ों में है
दिखने में थोड़ा हूँ बुरा पर है भली सीरत मिरी
गर जो अलग तुमसे हुआ कर ख़त्म ख़ुद को लूँगा मैं
अब ये भला कैसे करूँ होती नहीं हिम्मत मिरी
इक भीड़ राजाओं की थी था इक स्वयंवर ख़्वाब में
जब तुमने मुझको ही चुना तो बढ़ गई क़ीमत मिरी
जब से सुना दिल ने कि तुम महफ़िल में आते जाते हो
चल जून चल महफ़िल में चल दिल कर रहा मिन्नत मिरी
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