अगर तुम्हें मुझ पे भी दिलों दिल क़रार या एतिबार होता
न इंतिहा इश्क़ की ये होती न साअत-ए-इज़्तिरार होता
तवील सी ये सहर गुज़रती नहीं यूँ ही याद में तेरे जब
इसीलिए वस्ल के लिए फिर मुझे शब-ए-इंतिज़ार होता
फिसल गई शख़्सियत गिरेबाँ से तो बची आबरू ही कैसे
उसी जगह और कोई होता तो वो बहुत शर्मसार होता
बदल गई दोस्ती हमारी बदल गए दोस्त भी हमारे
ये बात कैसे तुम्हें बताऊँ सनम कोई ग़म-गुसार होता
अगर कड़ी धूप में 'मनोहर' दिखे परी इत्तिफ़ाक़ से ही
मेरा भी दिल बाग़ बाग़ होता हरा भरा शाख़सार होता
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