गर्द सी ये फ़ज़ा एक मंज़र लगे
देखते बद-नज़र से वो बंदर लगे
कोई हमदर्द भी हम-नवा ही मिले
रूह से और दिल से समंदर लगे
मक़्तल-ए-जाँ किसे फिर मुयस्सर रहे
ताक़त-ए-सब्र से हाथ ख़ंजर लगे
कौन बिस्मिल हुए हुस्न के जाल से
तीर दिल में मेरे ख़ूब अंदर लगे
इश्क़ जब आग है वस्ल दरिया रहे
फिर शब-ए-वस्ल से दिल समंदर लगे
रोज़ हुस्न-ए-सहर ही 'मनोहर' रहे
देखने से उसे ख़ास मंज़र लगे
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