दिल के सहरा में उठा तूफ़ाँ करारा देखता
तेज़ आंँधी में कहाँ से फिर उजारा देखता
हिज्र में भी कौन हाल-ए-दिल किसी को बोलता
साथ मिलता तो न उनको बे-सहारा देखता
ज़िंदगी में तीरगी-ए-शब सदा ही हारता
ये न होता तो कहाँ कोई उजारा देखता
रोज़ अश्क-ए-शम्अ को भी तो जलाना है यहाँ
ज़ुल्मत-ए-शब में कभी फिर क्या सहारा देखता
कौन अब हालात को किस के समझता है यहाँ
चंद रुपयों में किसी का क्या गुज़ारा देखता
ज़िंदगी में कोई वालिद को किसी के सामने
हाँ कभी भी कश्मकश से ही न हारा देखता
कोई आंँधी महज़ आती तो "मनोहर" क्या करे
एक माँझी दूर से अपना किनारा देखता
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