ख़त्म होता है मुसीबत का ये सफ़र ही नहीं
और मंज़िल भी कहीं आ रही नज़र ही नहीं
जिसमें उड़ते हों परिंदे बग़ैर फ़िक्र किए
ऐसा तो दिखता मुझे आसमाँ किधर ही नहीं
दूरबीं से मैं जहाँ ज़ूम कर के देख चुका
अब किसी चोर में हाकिम का कोई डर ही नहीं
लड़कियाँ खुल के निकल पाएँ और न घबराएँ
मेरी नज़रों में अभी आई वो डगर ही नहीं
कौन कहता है कि दिन अच्छे आ गए हैं यहाँ
काला धन आया अभी तक तो लौटकर ही नहीं
लाखों मुफ़लिस जो हैं फुटपाथों पर बिलखते हुए
अब तलक उनको दिलाया किसी ने घर ही नहीं
खेत में घूम रहे काश्तकार टॉर्च लिए
रात दिन एक किए बिन तो है गुज़र ही नहीं
मैं गला फाड़ के चिल्ला चुका मदद कर दो
उनके कानों पे मेरी टेर का असर ही नहीं
भुख़मरी और है ऊपर से धूर्त महँगाई
डायनें दिन में भी ठाढ़ी हैं रात भर ही नहीं
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