लाखों सदमें ढेरों ग़म, फिर भी नहीं हैं आंखें नम
इक मुद्दत से रोए नहीं, क्या पत्थर के हो गए हम
यूं पलकों पे हैं आँसू, जैसे फूलों पर शबनम
ख़्वाब में वो आ जाते हैं, इतना तो रखते हैं भरम
हम उस बस्ती में हैं जहाँ, धूप ज़ियादा साये कम
अब ज़ख्मों में ताब नहीं, अब क्यों लाए हो मरहम
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