उमीद-ए-फ़स्ल का होना है ख़ून, लानत है
पलट के आया नहीं मानसून, लानत है
गिराने के लिए ही प्यार का मकाँ तूने
ख़ुलूस-ओ-अम्न का खींचा सुतून, लानत है
सरों से छीन लिया तूने आशियाना, और
हमारे सर पे खड़ा माह-ए-जून, लानत है
गुज़ारनी थी तुझे अपनी सर्द रातें जो
बदन से काटा है भेड़ों का ऊन, लानत है
अवाम मरता रहा और देखता तू रहा
कहाँ गया तेरा इल्म-ओ-फ़ुनून, लानत है
बची है घट के अब आधी 'अनीस' आमदनी
कहा था तूने कि होगी ये दून , लानत है
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