ढूँढा करे है जिस को ये दिल वो कहीं नहीं
दोनों जहाँ में कोई मेरा हम–नशीं नहीं
आख़िर निकल रहे हैं कहाँ से ये साँप रोज़
इतनी तवील तो ये मेरी आस्तीं नहीं
तन वो क़फ़स है जिस में गिरफ़्तार है ये रूह
दिल वो मकाँ है जिस में कोई भी मकीं नहीं
उस को भी कोई याद सताती नहीं है अब
मैं भी किसी मलाल से अंदोह-गीं नहीं
अहल–ए–जहाँ भला मुझे काफ़िर कहे हैं क्यों
बेज़ार हूँ दुआ से मगर बे–यक़ीं नहीं
अज़मत ख़ुदा ने बख़्शी है बस आसमान को
ऐसी सिफ़त है ये की जो सर्फ़-ए-ज़मीं नहीं
उन की निगाह-ए-नाज़ से पुर–लौ न हो ‘अभी’
आशिक़ हैं उन के और भी इक बस तुम्हीं नहीं
Read Full