सहर की किरण में सिसकते शजर का है ग़म

  - Vikas Shah musafir

सहर की किरण में सिसकते शजर का है ग़म
ख़मोशी से बढ़ते हुए इस सफ़र का है ग़म

फ़ज़ाओं में गूँजे हैं ख़ामोशियों के ये शोर
बिखरती हुई इस घटा के कतर का है ग़म

चमन में उजड़ते हुए फूलों के उभरे ज़ख़्म
हवा में लरज़ते हुए उन असर का है ग़म

चमकते हुए चाँद ने आह भर ली है अब
मुझे अब सितारों के उन टूटे घर का है ग़म

ये क़ुदरत भी अश्कों में डूबी हुई रहती है
मुझे आने वाले नए उस गुज़र का है ग़म

ये इंसानियत अब भी सोयी हुई और मुझे
नयी नस्ल की बिगड़ी इस रहगुज़र का है ग़म

  - Vikas Shah musafir

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