मुझ को रुस्वा कर के मेरी महफ़िल छोड़े हुए तुम्हें
अर्सा बीत गया है इक मेरा दिल छोड़े हुए तुम्हें
अपना ग़ुस्सा तुम पर कर के नाज़िल छोड़े हुए तुम्हें
मैं ता-उम्र नहीं रह पाया ख़ुश-दिल छोड़े हुए तुम्हें
तुमने हाथ छुड़ाया और हो गई शुरूअ मिरी ग़ारत
रहम नहीं आता मेरा मुस्तक़बिल छोड़े हुए तुम्हें
मैं अब-भी बंदरगाहों के चक्कर लगाता रहता हूँ
कितनी मुद्दत बीत गई है साहिल छोड़े हुए तुम्हें
चाहता मैं कर लेता सारा-कुछ अब तक तो तुम्हारे साथ
ये मेरी अच्छाई है बे-हासिल छोड़े हुए तुम्हें
तुम भी 'मिलन' अजब करते हो फिर से उस को देखना है
ज़्यादा वक़्त नहीं बीता है इसकिल छोड़े हुए तुम्हें
As you were reading Shayari by Milan Gautam
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