बाग़ में जो कली हिजाब में थी
उसकी ख़ुशबू हर इक गुलाब में थी
आज वो ज़ात बे-वफ़ा निकली
कल तलक जो वफ़ा के बाब में थी
मौत बैठी थी मुतमइन सच है
ज़िंदगानी ही इज़्तिराब में थी
हाथ थामे हुए है मुफ़्लिस का
कल जो शहज़ादी मेरे ख़्वाब में थी
सोचकर हूँ मैं मुब्तिला-ए-इताब
क्या सबब था वो क्यों इताब में थी
दफ़्न कर दी शजर ने ज़ेर-ए-ज़मीं
आयत-ए-इश्क़ जिस किताब में थी
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