कह के क़िस्सा ख़त्म कर दे प्यार का
दिल नहीं करता तिरे दीदार का
फूल गिरते हैं चमन में शाख़ से
शीरीं लहजा सुन के मेरे यार का
जब सवाल-ए-बैअत-ए-फासिक़ हुआ
लफ़्ज़ निकला मुँह से बस इनकार का
कोई नईं आया यहाँ पर पूछने
हाल हाए मुफ़लिस-ओ-बीमार का
ये हक़ीक़त है क़सम से दोस्तों
इश्क़ में अपना मज़ा है हार का
एक दिन झुँझला के वो कहने लगा
क्या करूँ मसलक की इस दीवार का
तज़किरा यारों में है शाम-ओ-सहर
आपके तिल वाले इस रुख़सार का
गुल सा नाज़ुक था जो मुर्शद कल तलक
रूप उसने ले लिया है ख़ार का
काम लेता है निगाह-ए-मस्त से
देखिए वो शख़्स अब तलवार का
हक़ बयानी अब नहीं करना कोई
हुक्म आया है अभी सरकार का
ऐ शजर देखो फ़राज़-ए-दार पर
दबदबा है मीसम-ए-तम्मार का
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