रक्खा ग़ज़ल का मौज़ू नया इश्क़ और मैं
होंगे नहीं कभी भी जुदा इश्क़ और मैं
हैं इक हसीं के लब की दुआ इश्क़ और मैं
देते हैं ये जहाँ को पता इश्क़ और मैं
ये सोचता था रक्खूँ ग़ज़ल की रदीफ़ क्या
इतने में मेरे दिल ने कहा इश्क़ और मैं
जिस तरह रूह साथ में रहती है जिस्म के
रहते हैं ऐसे साथ सदा इश्क़ और मैं
बस तीन चीज़ें लाइक़-ए-तस्लीम हैं शजर
ये याद रखना मेरा ख़ुदा इश्क़ और मैं
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