वो शाहज़ादी बर सर-ए-महफ़िल जिधर गई
महफ़िल में उस तरफ़ को सभी की नज़र गई
इक याद आज ऐसा सितम मुझ पे कर गई
आँखों में मेरे अश्कों का सैलाब भर गई
क़ल्ब-ए-हज़ी पे मेरे क़यामत गुज़र गई
जो ख़्वाहिश-ए-जिगर थी मेरी आज मर गई
पढ़ता था बैठकर जो मुसल्ले पे इश्क़ के
तस्बीह बंदगी की हमारी बिखर गई
मेरे सवाल का ज़रा मुझको जवाब दो
मैं जिसको जानता था वो लड़की किधर गई
लौटा मैं बे जवाब जब अपने सवाल पर
तो मैंने ये कहा के वो लगता है मर गई
अब इससे बढ़ के और नहीं सह सकूँगा ग़म
ये कहके मेरे क़ल्ब की धड़कन ठहर गई
तूफ़ान ऐसा शहर-ए-मोहब्बत में आ गया
पत्तों की तरह इश्क़ की बस्ती बिखर गई
मैं सोचता था ज़िन्दा रहूँगा तुम्हारे बाद
लेकिन बिछड़ के जीने की ख़्वाहिश भी मर गई
मत मारो मेरे क़ैस को पत्थर से ज़ालिमों
लैला ये शिकवा लब पे लिए दर-ब-दर गई
दीवार में सलीम को चुनवा दिया गया
लगता है बादशाह की दस्तार-ए-सर गई
दिल में मेरे उतरना था जिस लड़की को शजर
देखो वो लड़की दिल से ही मेरे उतर गई
मुझसे सवाल करते हैं सब आनकर शजर
तेरी जो सल्तनत थी बता वो किधर गई
क़िर्तास पर चलाया जो मैंने शजर क़लम
तस्वीर एक फूल की उस पर उभर गई
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